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औरत का भारी संदूक और एक सोनचिरैया / प्रकाश मनु

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अकेली थी
खुद को खोल-खोलकर सुखाने लगी वह
धूप में
जैसे कि हर बार-साल में कमजकम एक बार
वह भारी-भरकम संदूक खींचकर बैठ जाती थी एकाकी
टटोलती उंगलियों से खेलती थी
अपनी चहचहाती गृहस्थी के बीच छिपा एकांत।

वहां सीलन थी
और गंध/जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर पाती थी
मगर जो आती थी कहीं भीतर से
कुछ सीली हुई चिट्ठियां थीं बहुत पुरानी ...
वह ठीक-ठीक नहीं जानती क्या करे इनका?
क्या करे अपने बासी दिनों, बदहवास फैले शरीर
फैलते समयों का

जो अब उसके काबू में नहीं।

अलबŸाा तुम देखोगे
पुराने वस्त्रों रंगीन कतरनों और छोटी पोटलियों के आगे
देखते-देखते सरकेगा उसका हाथ
और खुल जाएगा अकस्मात किसी तिलिस्म की तरह
डब्बे के अंदर पड़े डब्बे में पड़ा
एक और डब्बा
-चहचहाती सौनचिरैया जिसमें बंद....
जिसमें आधी जान है उसकी
आधी बेटे, नाती-पोतों में।

वहां (यानी डब्बों के भीतर डब्बों में)
पड़ा है कुल मिलाकर सोना
पांच तोले-नहीं-
आधा तो बेटी के गहनों चला गया
बच रहा आधा
और हां, आधी बांहों वाला एक ब्लाउज भी
(ठोस बैंजनीपन से लबालब ।)
तब वह खासकर पहना जाता था इसलिए कि स्लीवलेस था
फिर उतारा गया
खासकर इसीलिए कि था स्लीवलेस।

इसके अलावा कुछ रंगीन कुछ बदरंग कबाड़ की शक्ल मं थे
बहुतेरे एकांत

दोहरी-चौहरी तहों में मोड़े गए सपने
किसी को वे नजर ही नहीं आए
अभी दो-चार बरस पहले तक जिंदा थे
मगर फिर जाने क्या हुआ कि एक दिन
बिना किसी घटना के, बिना कोई बात
उम्मीद ही चली गई
यानी कि गए-गुजर गए वे अकस्मात्-
और यहां शव था
जो कितनी ही बार चाहा मगर फेंका ही नहीं गया।

यों भीड़ थी और भी मार तमाम चीजों की
कि जैसे कुछ बदरंग चूड़ियां
जो अरसे से पहनी ही नहीं गई
कुछ खिलौने कलाकृतियां, रंगीन नाड़े के टुकड़े, भांड़े-मायके से लाये गए साथ
काले रंग का डिजायन कढ़ा एक सलवार सूट
एक फोटो गुजरे दिनों का जिसमें माथे के दोनों तरफ झूलते थे बाल
और कोई याद आता था।

ठीक-ठीक बताना मुश्किल है कि खुद को देखा आईने में
तो उस पर क्या गुजरी
कौन-कौन से रंगों को उसने याद किया, कौन-सी पत्तियाँ

भूले हुए डिजायन स्वेटरों के
खनखनाती चूड़ियों वाले बर्तन मलते हाथ
जो देखते ही देखते युवा हुए-बुढ़ा गए सहसा-

लहलहाती बेल जैसे लहराते नाती-पोतों वाले-
भरे-पूरे परिवार के बावजूद
किससे कहा उसने-अलविदा....।।

लौटी तो वह इस कदर
अकेली क्यों थी
कि चुपचाप लेटी
और मर गई

तभी-ठीक तभी-
संदूक के भीतर डब्बों के कैद सौनचिरैया भी आजाद हुई
कई दिनों तक घर के सपनों में मंडराती रही
फिर कभी नजर नहीं आई।