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औरत की मूरत / राजीव रंजन

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आजादी का यह नाटक
आज भी बदस्तूर जारी है ।
वह आज मार रही है
बाहर के दुश्मनों को
लेकिन आज भी हार रही है
अन्दर के दुश्मनों से
वह आज उड़ रही है
हवा को चीरकर ऊपर
आसमान में
लेकिन आज भी उसे
मयस्सर नहीं है स्वछंद सांसें ।
आज भी उसकी सांसें
बंधी हैं मर्यादाओं से
आज जब भी वह खुले में
कुछ सांसें लेने निकलती है
तो टूटती हैं मर्यादाएं
और हवा के साथ घुलकर
भर जाती है उसके फेफड़ों में ।
फिर बाहर की हवाओं को
अन्दर खींचना बहुत
मुश्किल हो जाता है उसके लिए ।
दो मानक वाले मीटर से
आज भी नापा जाता है
यहां मर्यादा और स्वतंत्रता को ।
उसकी पहचान बांध दी गयी है
रिश्तों की जंजीर से ।
बिना उसकी इच्छा जाने
उसे बना दिया जाता है
त्याग और ममता की मूरत ।
लालसा एवं अहं ने तो
मूरत को बना दिया है
पूजनीय देवी ‘‘मां’’
लेकिन बिल्कुल पत्थर की मूरत की तरह
बिना सांसें लेने वाली
संस्कृति एवं शालीनता
के लिबास में लिपटी ।