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औरत / कुमार कृष्ण
Kavita Kosh से
दोस्तो !
जैसे एक नदी में होती हैं सैकड़ों नदियाँ
एक पहाड़ में होते हैं असंख्य आग के घर
उसी तरह-
एक औरत में होती हैं अनगिनत निर्मला पुतुल
असंख्य तसलीमा नसरीन, दर्जनों कात्यायनियाँ
दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने के लिए
वह करती है पुरुष से प्यार
करती है होम अपनी तमाम इच्छाएँ
स्वाह सैकड़ों सपने
एक औरत अपनी माँ का घर छोड़ कर
बनाती है अनगिनत घर
बदलती है दीवारों को घर में
जोड़ती है घर से घर
वह जलाती है-उम्मीद के, विश्वास के उपले
वह जानती है घोंसलों की हकीकत
जानती है सपनों का छल
दुनिया का सच
औरत है आग ही आग
फिर भी बाँटती है राग इस धरती पर।