औरत / सतीश कुमार सिंह
वे जिनके हाथों में थीं कंदीलें
उन्होंने भी उसे
क़तरा भर रोशनी देने से
इंकार किया
वे घुटती रहीं
सीलन भरे स्याह बंद कोठरियों में
खिड़कियों से झाँकती रहीं
उनकी पीड़ाएँ
कई कुलों की लाज को
ढोने के नाम पर
उन्हें मिली
पीठ पर असह्य कोड़े की मार
अब जबकि
जगमग रोशनी से
नहाया हुआ है यह समय
वे जींस टाॅप पहनकर
घर की आमदनी में इजाफ़ा करने
निकलती हैं सेल्स गर्ल बनकर
द्वार द्वार खटखटाती हैं साँकल
बजाती हैं कालबेल
एक साथ उनके जिस्म को
घूरती हैं
कई कामुक और विधुर आँखें
आज भी उजालों से भरे
इस माहौल में
अदृश्य और अनकहा है उनका दर्द
जबकि वे होने लगी हैं
प्रतिभा पाटिल, सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज,
निर्मला सीतारमण, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स,
सानिया मिर्ज़ा, पीवी सिंधु, साक्षी मलिक
वे अब भी पसरी हैं
बाज़ार की वस्तुओं के साथ
विज्ञापन की मेज पर
औरत की नंगी टांग
बेच रहे हैं कई उत्पाद
और पास के देवी मंदिर में
चल रहा है जगराता
जबकि दिल्ली में
ठीक इसी समय
एक मासूम चिड़िया को
कुछ गिद्धों ने नोचकर
फेंक दिया है
चलती बस से बाहर
अब भी वही वहशीपन
वही जहानत है
सभ्यता और संस्कृति के खोखलेपन पर
लानत है, लानत है