भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औरों से क्यों कहो तुम गर मुझसे बदगुमाँ हो / परमानन्द शर्मा 'शरर'
Kavita Kosh से
औरों से क्यों कहो तुम गर मुझसे बदगुमाँ हो
मेरी तबाहियों का क्यों ग़ैर राज़दाँ हो
हर शिकवे हर गिले की तुम बात मुझसे कर लो
क्यों मेरे और तुम्हारे अल्लाह भी दरम्याँ हो
बेख़ुद किया था ख़ुद ही नज़रों से मय पिला कर
अब ख़ुद ही पूछते हो मुझसे कि तुम कहाँ हो
मुझको तो कर दिया है तुमने तबाह लेकिन
मेरी यही दुआ है तुम ख़ुश रहो जहाँ हो
जो दोस्ती के दावे करते थे निकले दुश्मन
हाय वो बाग़ जिसका सय्याद <ref>शिकारी</ref> बाग़बाँ हो
तुमको बुलन्द करके पामाल हो गया है
क्यों मेरी पस्तियों का आलम तुम्हें गिराँ हो
दिल ऊब-सा गया है ऐ ‘शरर’ इस जहाँ से
उस पार हो न हो तो बेहतर कोई जहाँ हो
शब्दार्थ
<references/>