भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
और एक झरना बहुत शफ़्फ़ाफ़ था / बाबू महेश नारायण
Kavita Kosh से
और एक झरना बहुत शफ़्फ़ाक था,
बर्फ़ के मानिन्द पानी साफ़ था,-
आरम्भ कहाँ है कैसे था वह मालूम नहीं हो:
पर उस की बहार,
हीरे की हो धारा,
मोती का हो गर खेत,
कुन्दन की हो वर्षा,
और विद्युत की छटा तिर्छी पड़े उन पै गर आकर,
तो भी वह विचित्र चित्र सा माकूल न हो।