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और एक दिन निशि के सूनेपन में रूग्ण पिता के / द्वितीय सर्ग / गुलाब खंडेलवाल

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और एक दिन निशि के सूनेपन में रूग्ण पिता के
चरणों पर रख पत्र एक, सूत बैठा शीश झुकाके
पत्र नहीं वह प्रथम पाठ था आत्म-शुद्धि के जप का
जड़ीभूत हिम-से प्राणों पर लेपन शरदातप का
यज्ञ-कुंड था वह जिसमें कुल कल्मष दग्ध हुए थे
पाँव न, सुत ने रूग्ण पिता के मन के तार छुये थे
पिता-पुत्र की जो उमड़ी सम्मिलित अश्रु की धारा
मन का छल-पाषंड-पाप उसने धो डाला सारा
देख अलौकिक सुमन स्वकुल में फूल उठा माली था
एक बार त्रेता में ऐसा पिता भाग्यशाली था
स्वजनों से सुनकर सुत ने जो लीलायें की वन में
होता होगा ऐसा ही आनंद नंद के मन में
बीजापुर के कारागृह में बंदी पड़े पिता की
पुलक-प्रीति ऐसी ही होगी सुनकर विजय शिवा की
 
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ज्यों मँझधार बीच माँझी ने पाल समेट लिया हो
आंधी में जैसे रजनी में दीपक बुझा दिया हो
तप-वर्षा-हिम-वात सहन करते जिसके प्रांगण में
सहसा वह प्रासाद तिरोहित हुआ एक ही क्षण में
 
शैशव से तारुण्य, और फिर आती भग्न जरा है
इस बलि होती परम्परा में कौन कहाँ ठहरा है!
पिता पुत्र में लौ अपनी आलोकित कर जाता है
चिर अनादि से वही ज्योति का तंतु चला आता है
 
एकाकी असहाय सिंह-शिशु ज्यों अजान वन-पथ पर
निर्भय बढ़ता है चढ़कर अपने पौरुष के रथ पर
वैसे ही जीवन के तट पर एक किशोर खडा था
मानव का भविष्य जिसके करतल में मुँदा पडा था