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और कितना, किस नाम से? / बीरेन्द्र कुमार महतो

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थोड़ा-थोड़ा, आहिस्ता-आहिस्ता
धरती-अम्बर सारा जहां
हो गया रंग लहू सा,
न जाने वो कैसा मंजर
जिसमें चाहते हैं विकास हमारा,
जादूगोड़ा का जादू
सारंडा बन गया अंडा
जिसके फूटते ही
धरती का एक-एक कतरा
हो गया लहू-लहू सा,
घर बसने से पहले ही
उजाड़ दिया तुम्हारा अन्नाकोंड़ा,
बच्चों की चीख
दबी की दबी रह गई
मॉं के ही गर्भ में,
जो आया भी
बची खुची
जीने की आस लिए
उसका भी कर दिया
बेदर्दी से हंट
ग्रीनहंट के नाम,
बसाने के नाम पर
हमेशा ही उजाड़ते रहे
सलवा जुड़ुम तो एक बहाना था
और कितना
जुलूम ढ़ाओगे हम पर?
कहो और कितना
किस नाम से?