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और छायाएँ / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
ऊपर यहाँ इस पहाड़ी मोड़ से-
दिखाई देता है एक पोखर।
आज इसके किनारे बैठी है एक स्त्री
धोती हुई अपने कपड़े और अपनी देह।
मेरे भीतर है यह पोखर जिसके शांत जल में
झाँकती वृक्षों की छायाएँ और आकाश,
किनारे बैठी औरत धोती रहती है अपने शोक।
मैं हूँ वह पोखर जो दिखता ऊपर से
मैं ही हूँ वह औरत जो देखती है -
जल में हिलती छाया।
मैं ही वह शोक जो धोया जा रहा इस जल में।
यहीं से ऊपर की ओर
देखता हूँ ऊपर से
जहाँ से दिखाई देता एक पोखर,
एक स्त्री और छायाएँ।