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और हुआ अनुवाद / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
Kavita Kosh से
समझ न पाया आज तक, होरी है मतिमंद
महाजनों ने हर तरफ, बिछा दिये हैं फंद
निरपराध धनिया खड़ा, कौन करेगा माफ़
है धनिकों के पास में, बिका हुआ इन्साफ
सुना रहा है आजकल, वही खबर अखवार
लूट, क़त्ल, धोखाधड़ी, घोटाले, व्यभिचार
जीवन के इस गाँव में, ठीक नहीं आसार
मुखिया के संग हर घडी, गुंडे हैं दो-चार
ठगी रह गयी द्रोपदी, टूट गया विश्वास
संरक्षण कब मिल सका, अपनों के भी पास
समझा सकी न झोंपड़ी, अपना गहन विषाद
मन की भाषा और थी, और हुआ अनुवाद
समझा वह अच्छी तरह, कैसा यह संसार
फिरता रहता आजकल, लेकर शब्द उधार