भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औल / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
Kavita Kosh से
कल मेरी
औल
कट जायेगी
इतने बरसों बाद।
जब मिट्टी
से टूटता
है कोई
तो औल
कटती है
बार बार।
कल मै बनूँगी
नागरिक
इस देश की
जिस को
पाया मैने
सायास
पर खोया है
सब कुछ आज
अनायास़।
कल मेरी
औल कटेगी