भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कच्ची-पक्की जस मिलि जाई / भारतेन्दु मिश्र
Kavita Kosh से
कच्ची-पक्की जस मिलि जाई
हियनै रहिकै खइबा
हम ना सहरै जइबा।
जो-जो सहरै गवा सो वापिस
लउटि न घर का आवा
हुवैंके हुइके रहिगे सबियों
का लरिकवा-बिट्यावा
जहाँ न जंगल अउरु चिरइया
हम कै दिन रहि पइबा।
ना बिलारि चूहा मारै
ना बाँदर डाका डारैं
जहाँ न हरहन के कानन का
कउआ खूँटु निकारैं
जहाँ न हुक्का-आल्हा-सुरती
कइसन द्याँह जियइबा।
मरती बेरा गाँव छोड़ि कै
हम कस सहरै जाई
अपनी-अपनी दउड़-भाग मा
को हमते बतलाई
बारह महिना याकै कोठरी मा
हम की बिधि सोइबा।