उदास दिनों की उदास शामों से गुफ्तगू 
ज़िन्दगी के रंग कई रे 
कौन जाने?
यहाँ रास्ते कच्चे हैं और दस्तकें पक्की 
सारंगियों की आवाज़ पर अब नहीं उड़ा करतीं तितलियाँ 
एक अजनबियत, एक धोखा और एक शहर 
बस इतना सा फलसफा ही तो है ज़िन्दगी का 
तुम बदल दो अपने चश्मे का नंबर इस बार 
क्योंकि देखने के लिए एक तजुर्बे की जरूरत होती है 
और वो उम्र को बेचने पर ही मिला करता है 
फिर खरीदार कोई हो या नहीं 
यहाँ आतिशबाजियों की जुबान नहीं होती 
जो तुम्हारी नस्ल से हो सकें बावस्ता 
दिनों की ख़ामोशी एक पहाड़े के सिवा कुछ भी तो नहीं 
दो दूनी चार हो या चार दूनी आठ 
याद करने के गुर बदल चुके हैं ठिकाना 
नीयतों के छिलके कभी उतारना
हर छिलके का रंग स्वार्थ की चाशनी में लिपटा 
फिर उँगलियों को दोष देने का रिवाज़ क्यों 
यहाँ बजरबट्टू लगाने के रिवाज़ को बदला गया है बेशर्मी से 
ढीठ हैं मधुमक्खियों की भिनभिनाहटें 
अक्सर गुनगुन करती छेड़ जाती हैं सुप्त तार 
फिर वो सप्तपदी के हों या अष्टपदी के 
यहाँ विशद नहीं उल्काएं 
जो एक ही पल में ध्वस्त कर दें संगीत के सुर 
किसी खुशनुमा सुबह और अलसाई शाम को 
पढना डूबते सूरज की आयतों को 
न वहां दिन मिलेगा न शाम न रात 
बस एक खौलता लावा, एक तन्हाई और एक मातमी सन्नाटा आवाज़ देता मिलेगा 
उसके अनुवाद को कम पड़ेंगी 
दुनिया की तमाम लिपियाँ 
गाँव, शहर या देश सिर पटक पटक मचाते रहें कोहराम 
आतंक का अनुवाद आज तक किसी भाषा में हुआ ही नहीं 
फिर कहो 
मौसमों के बदलने से कब बदली है दिनों की भाषा, परिभाषा 
और 
सन्नाटों ने भला कब नहीं शोर का बिगुल बजाया 
ये मेरे और तुम्हारे गिनने के दिन नहीं 
जो कच्चे रास्तों पर चलते हुए सुन लें पक्की दस्तकें 
आओ कहें 
खुशामदीद 
खुशामदीद 
खुशामदीद 
बंजारे चाँद की चाँदनियों ने उलट दिए हैं आसमां के सभी सितारे 
किसी खोये दिन की तलाश में 
दस्तकें किसी आमद का सूचक हों जरूरी तो नहीं