भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कटौती का दसवाँ / नज़ीर बनारसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बताओ तो झुँझलाये-झुँझलाये क्यों हो
कहो आज बलखाये-बलखाये क्यों हो
ये नागिन से लहराये-लहराये क्यों हो
अदा तेग़ बनकर चमकने लगी क्यों
नज़र बर्क़ बनकर कड़कने लगी क्यों
बिगड़ने प आये बिगाड़ी ज़बाँ तक
सुना है सुनाई गई गालियाँ तक
शराफ़त बढ़ी के आई यहाँ तक
तमाचे नहीं बल्कि जूते लगा दो
ये मज़दूर जिस तरह जागें जगा दो
महाजन गया हम असामी नहीं अब
जबीं <ref>माथा</ref> कोई बहरे <ref>के लिये</ref> सलामी नहीं अब
कि ये दौर गु़लामी नहीं अब
समन्दर के पार अब है गोरा महाजन
पुकारेगा किसको हमारा महाजन
हैं नव्वाब अब लेकिन जलालत <ref>श्रेष्ठता</ref> कहाँ है
है राजा तो अब भी रियासत कहाँ हैं
लहू है, वो ज़ालिम हरारत <ref>गर्मी</ref> कहाँ है
न अब तख़्त कोई न गद्दी रहेगी
जो हालत हमारी वो सब की रहेगी
सजाते हो घर क्यों वतन को सजाओ
घटा बन के छा जाओ छाकर दिखाओ
वो भूली तुम्हें तुम उसे भूल जाओ
चमक उसकी झूटी थी हीरा नहीं थाी
वो ज़ालिम सुपनख थी सीता नहीं थी
तमन्ना हँसे आरज़ू मुस्कुराये
हर इक दिल को अल्लाह जन्नत बनाये
वो ज़ालिम थी ज़ालिम जहन्नम में जाये
कटौती गई कट गई सब बलायें
तुम आओ तो मिल-जुल के दसवाँ मनायें

शब्दार्थ
<references/>