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कट चुका धान / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
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कट चुका धान
खेतों में फैला है फूस
रूखे पत्ते, साँप की केंचुल
घोंसला, शीत में-
उतराये हुए हैं।
यहाँ सो रहे हैं कुछ अति परिचित लोग ख़ामोशी से
वह भी यहीं सोयी है-
रात दिन जिसका साथ था
प्रेम में जिसे छला था।
आज यही शान्ति है कि घनी-हरी घास-
घास पतंगों ने ढक रखे हैं-
उसकी चिन्ता और जिज्ञासा का अँधेरा स्वाद।