भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कड़वी हवा / मनीष मूंदड़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरा आँचल सूखा
मेरा छलनी दामन
ख़ून सने अब मेरे आँगन
सूख गया अब जर्रा जर्रा
चारों ओर बना शमशान-सा आलम
कभी खिलखिला के मचलती थी झीलें, नदियाँ नाले
अब सूखी डाली करती हूँ तेरे हवाले
मत रो तू मेरी इस बंजर बेबसी पे
हवा का रुख़ तूने ही तो बदला अपनी करनी से
अब बस लाह है मेरी बिखरी माटी में
तपिश बची हैं मेरी छाती में
कहीं जल मग्न होते मेरे किनारे
तो कहीं आग उगलते पत्थर बने अंगारे
ख़ूब रुलाया तुमने
अब तो आँसू भी सूख चले
तुम्हें जन्म दिया मैंने
देखो मुझे ही तुम मार चले
काट कर जंगल, मुझे बेआबरू किया
अरे इंसान तूने ऐसा क्यूँ किया?
ना भूख से बिलखते तुम
ऐसे ना तड़पते तुम
कैसे पालूँ तुम्हें
कहाँ से लाऊँ रोटी?
काश! तुम्हारी लायी यह कड़वी हवा ना होती।