भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कथनी-करनी / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
Kavita Kosh से
कविताओं में
लिखती हूँ ख़ूब
हक़ की बात
औरत होने की पीड़ा से
मुक्ति की ख़ातिर
चिड़ियों की उड़ान देखते हुए
सोचती हूँ उड़ जाऊँ
पिंजड़े से फुर्र
अपने अस्तित्व की ख़ातिर
कविताओं से बाहर
मेरी ज़िंदगी के फ़ैसले हैं
दूसरों के हाथ
और मेरी रगों में
संस्कार ऑक्सीजन बन दौड़ रहा है
कर नही पाती
अपनी ही सांसें अपने नाम
अपनों की खुशियों की ख़ातिर
जानती हूँ
आनेवाले समय में
कोई लड़की बिल्कुल मुझ-सी
लिख रही होगी कविता
या जी रही होगी कविता
उसे उसके फ़ैसले सौंप कर
कर सकूंगी थोड़ा-सा पश्चाताप
कविताओं में।