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कथाकार हसन जमाल के लिए / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

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मेरे शहर में एक आदमी रहता है
ख़ूब लिखता-पढ़ता-छपता और छापता है अपने रिसाले में
किताबों को, लोगों को
पन्द्रह बरस से एक अकेला
'शेष’ नामक उर्दू-हिन्दी की पत्रिका निकालता है
उस आदमी से साहित्य की बात करो तो कहता है
'मैं साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानता’
'फलां कविता, मुक्तक या शायरी कैसी लगी
आलेख या समीक्षा ठीक थी?’
पूछो तो सकपकाकर कहता है
'मैं नहीं जानता’
सहज रूप से बात करो तो बातें करता है
नामवर, प्रियमवद, निर्मल वर्मा, ज़ाहिदा हिना, उदयप्रकाश की
कहानी की, उपन्यास की, कथ्य की, शैली की, विचार की, लिबास की
पर जब बात करने के लिए बात करो तो कहता है
'मैं कुछ जानता ही नहीं और इस सबसे बचना चाहता हूँ’
इस आदमी का लिखा पढ़ो, तो पढ़ते रह जाओ
खो जाओ और जान ही नहीं पाओ
कि किताब पढ़ रहे हो या कि यथार्थ में पात्र
और घटनाओं से रू-ब-रू हो रहे हो
हर घटना जैसे अभी घट रही हो
और हम उसे देख रहे हों घटते हुए
पर जब उस आदमी से बात करो
उसकी कहानियों के पात्रों की, घटनाओं की
पूछो कोई प्रश्न कि जैसे
'अबद्दुसत्तार राजनीति में किस गुड़ की बात करता है?’
और जवाब का करो इंतज़ार तो अचकचाकर बेहद मासूमियत से
आपके सवाल के जवाब में सवाल कर बैठता है यह आदमी कि
'यह किसकी कहानी, किस दृश्य और किस घटना की बात हो रही है, मैं नहीं जानता’
'माने?’
'माने यह कि कहानी लिखने के बाद मेरा उससे 'डिटेचमेन्ट’ हो जाता है
मैं अपनी कहानी, पात्र, उनके नाम, घटनाएँ और दृश्य सब भूल जाता हूँ’
ऐसे में सवाल यह उठता है कि
इस आदमी के भीतर यह कौन छिपा बैठा है जो इससे
आम आदमी के दर्द और तकलीफ को लिखवाता है
संवेदनशील भाषा का उपहार दे जाता है
और फिर उसे अकेला छोड़ कर चला जाता है चुपचाप
जैसे कभी आया ही नहीं था यहाँ कोई
जैसे कभी कोई था ही नहीं यहाँ

यह आदमी शहर की साहित्यिक गोष्ठियों में नहीं पाया जाता
यह कौन जाने कि बुलाया नहीं जाता कि इससे जाया नहीं जाता
कुछ लोग कहते हैं कि वह मिलनसार नहीं है
कुछ कहते हैं कि बोलता ही नहीं
कुछ कहते हैं कि उसके पास समय नहीं है
कुछ उसकी चुप्पी और गम्भीरता से घबराते हैं
पर सच्चाई यह है कि वह खुद डरा-डरा सा रहता है
खुद को कमतर मानता है
सच यह भी है कि वह आक्रोश से भरा रहता है
यह आक्रोश व्यवस्था के प्रति है दोगले समाज के प्रति है
वह कहता है
'हिन्दुस्तान का अवाम अपने लोगों को चुनता है फिर उनकी गुलामी करता है
और यह व्यवस्था एक आदमी, एक साहित्यकार बदल नहीं सकता
इसके लिए चाहिए कि पूरा समाज हो तैयार
पर समाज चुप है’
इसलिए वह समाज से नाराज़ है
जितना समाज से नाराज़ है उससे कहीं ज्य़ादा खुद से नाराज़ है
उसके भीतर हताशा, नैराश्य भाव और अजीब सूनापन है
सबके बीच अकेला उसका मन है
अक्सर कहता है 'लोग मेरी कद्र नहीं करते मैं उनकी परवाह क्यों करूँ
मैं अकेला कब तक चलूँ और क्यों किसी के लिए मरूँ
मैं अपनी दुकान बन्द कर रहा हूँ ('शेष’ के सन्दर्भ में)
कुछ दिन लोग याद करेंगे फिर भूल जाएँगे
जैसे कि अक्सर भूल जाया करते हैं’

पर यह आदमी अच्छा लिखेगा, छपेगा और ज्य़ादा अच्छा छापेगा
क्योंकि इस आदमी में एक बच्चा अभी जि़न्दा है
गोया कि आदमी में आदमी जि़न्दा है