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कथा: एक दिन एक स्त्री के बीमार पड़ जाने की / राग तेलंग

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एक दिन
एक स्त्री
जो पृृथ्वी पर मौजूद सारे घरों का काम करती थी
पड़ गई अचानक बीमार

अचानक इस तरह हो जाने से चारों तरफ मच गया हड़कंप

अलस्सुबह आंगन में झाड़ू लगाती नहीं दिखी वह स्त्री
तो रोजाना आने वाले पंछी वापस लौट गए
लोग कहने लगे-क्या हुआ ?
आज चहचहाहट क्यों सुनाई नहीं दे रही ?
क्या मर गया है प्रकृति का संगीत ?

पौधों को पानी देने वाला कोई न था तो पौधे मुरझा गए
लोग कहने लगे-क्या हुआ ?
आज फूल और फूलों की सुगंध नहीं है
कैसे होगी मूर्तियों की पूजा ?

तितलियों को बतियाने वाला कोई न मिला तो वे अपने-आप रुठ गईं और
जा बैठीं आकाश के एक सूने बागीचे में
लोग कहने लगे-क्या हुआ ?
आज हवा में पंखों से झरने वाले रंग दिखाई नहीं देते
पंखों को सहलाने वाले वो हाथ क्या हुए ?

रसोईघर में दीवारों ने आपस में खुसफुस की
आज जलतरंग के स्वर उनसे न टकराने के बारे में
और ज़ार-ज़ार आंसू बहाए

छत पर खिंची रस्सियों ने धूप से साफ कह दिया-
आज कपड़े धोने-सुखाने का दिन नहीं
ऐ धूप ! तुम जाओ सूरज से कह दो लौट जाए
इस तरह छा गया अंधेरा असमय और
उस स्त्री से जुड़ी सारी उम्मीदों की चमक खो गई

यूं तो शाम उस दिन बड़ी देर से हुई
सूर्योदय से सूर्यास्त तक वह स्त्री अकेली पड़ी कराहती रही
गूंजता रहा दिक्-दिगंत में उसका आर्तनाद
इसके बावजूद पृथ्वी पर कोई न था जो लेता स्त्री के हाथ का काम अपने हाथ में
सबने ईश्वर की आड़ ली और
उपवास का बहाना लेकर स्त्री का भूखा-प्यासा रहना न्यायोचित ठहराया

इस तरह एक घर, फिर दूसरा घर,फिर तीसरा घर...
करते-करते असंख्य घर बीमार पड़ गए महामारी फैल गई
तब से आज का दिन है वह स्त्री बिस्तर से उठ नहीं पाई है
भले दिखती हो उसकी छाया बेमन से चूल्हा-चौका संभालती
या कहीं और काम पर लगी हुई

और यह जो स्त्री है न ! चुपचाप-सी
जो भली-चंगी दिखाई दे रही है
यह वही बीमार स्त्री है
जिसकी वजह से उदास है समूचा आसपास
जिसका दर्द बांट लेने वाला आज भी कोई नही
देखो ज़रा ध्यान से !