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कथा खेत-खरयानन की / शिवानन्द मिश्र 'बुन्देला'

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तुम डिल्ली कीं बातें करौ बड़े भइया,
हमें करन दो सेवा अपने गाँवन की;
तुम कारन पै मलकौ मालपुआ गुलकौ,
हमें कहन दो कथा खेत-खरयानन की।

इन गावन में अपने पुरखा रहत हते,
ठाँड़ी कर गए छाय-बनाय मड़इयँन कों;
रात-रात सोई गीले में महतारी,
पाल-पोस स्यानों कर गइ सब भइयन कों।
खेतन की माटी सरसक्क पसीना सें,
दो-दो बीघा भूम सकल सम्पदा हती;
कोहरीं, चना, मुसेला धमके काम करो,
घी कीं चुपरीं बाँटत रहे खबइयन कों।

देखौ कभउँ जाय कें उन रौगड़ियन पै,
अभउँ डरी है धूरा उनके पाँवन की।

इन गाँवन में बारे सें उचके-कूँबे,
हिल-मिल खेले खेल, बनाए घरघूला;
तला-तलइयाँ सपरे, खेतन में लोटे,
दिन-दिन भर सावन में झूलत ते झूला।
ज्वानी अपओं-बिरानो लैकें चढ़ आई,
आँत-हिलोरो भइया तब बैरी बन गओ;
घूरे पै गारी-गुल्ला मुड़कटइ भई,
फाँसी पै टँग गए मतइयाँ मनफूला।

उन दोउन के लरका जूझ करइयाँ हैं,
लै लई है सौगन्ध उन्हें समझावन की।

गाँवन के त्योहार लगत हैं तेरहिं-से,
अब न भरै कोउ स्वाँग न बजत नगाड़े हैं,
ज्वानन की कढ़ आईं कुथरियाँ पेटन कीं,
और पथनवारे बन गए अखाड़े हैं,
अब न गाँव की बेटी सबकी बहिन रही
अब न गाँव के लरका ऊके भइया हैं;
कढ़न न पाबैं हार-खेत बहुएँ बिटियाँ
गैल-घाट में ऐसे चरित उभाँड़े हैं।

हमें बेंदुला-चढ़वइया बन जानें है,
चन्द्रावल की धरीं भुजरियाँ सावन कीं।