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कथा में मैं का वह में बदलना और मैं का कथा में / तेजी ग्रोवर

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*(मार्ग्रीत द्ययूरास का ‘द लवर’ पढ़ते हुए)

यह एक ऐसी कहानी है
जिसमें कोई मैं है जिसे प्यार किया जा रहा है

शुरू-शुरू के दिन हैं, हल्दी के दाग़ से दिन भी हो सकते हैं
हर बार की तरह यह पृथ्वी पर पहले प्रेम की ही चन्द्र-बूँद है
पानी में काँपते हुए पहलेपन की बात भी यहीं से है

बूँद जो बिम्बित है यहाँ पानी में टूट जानी है
कहानी है न जिसमें किसी मैं को प्यार किया जा रहा है
शुरू यूँ है कि टूटने से ठीक एक धड़कन पहले
कि टूटने से ठीक दो धड़कन बाद

कि ओह तुम टूटने की ध्वनि बनने दे रहे हो दो बार
लो आती है पत्तों के ठहरने की आवाज़
नृत्य से थमने की आवाज़ आती है

मैं को गढ़ने की थकान से उठा भी नहीं
और मूँद रहा है देखो एक कथाकार
मैं की पलकें मूँद रहा है
वह की पलकें खोल रहा है

वह ही सहता है हल्दी के दाग़ का उड़ना
वह ही सहती है धूप में दाग़ का उड़ना

मैं तो बिलकुल सहती ही नहीं
मैं पूरी कहानी में रहती ही नही

*मार्ग्रीत द्ययूरास के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘द लवर’ में मैं नाम का पात्र यूँ ही कभी ‘वह’ मैं तब्दील हो जाता है, और वैसे ही अनायास ‘वह’ फिर ‘मैं’ में । क्या ऐसा है कि जब ‘मैं’ से कोई पीड़ा सहन नहीं हो रही तो वह ‘वह’ में बदल जाती है?