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कथा / विष्णुचन्द्र शर्मा

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यह जो मन मार कर
पसरा है आकाश
यह शुरूआत नहीं है ।

यह जो डुबकियाँ लगाकर
बैठा है पत्थर
यह मायूसी नहीं है ।

यह जो अख़बारों में लगातार
लुप्त हो रही है सभ्यता
यह ढाई आखर नहीं है ।

यह जो मेरे भीतर छटपटा कर
खोजा करता है प्रेम
यह तुम्हारी रूपकथा नहीं है ।