कथि के ऊ जे अगरे चन्नन, सुनु केदुली बने / अंगिका लोकगीत
कोहबर में दुलहा सोने गया। उसके पायताने उसकी सास और बगल में उसकी पत्नी सोई। सोते समय दुलहे के अँगूठे से उसकी पत्नी को चोट लग गई, जिसके लिए दुलहा अफसोस करने लगा। सास ने कहा- ‘इसके लिए अफसोस क्यों? आज तो सुहाग की रात है। मैं तुमसे प्रार्थना करती हूँ कि मेरी बेटी कभी मलिन न होने पाये।’ दुलहे ने आश्वासन दिया- ‘सासजी, ऐसा कभी नहीं होगा। मैं रोज आठ-दस कपड़े धुलवा दूँगा, जिससे यह रोज सोलहों शृंगार कर सके।’
इस गीत में दुलहिन के प्रति दुलहे के अटूट प्रेम का वर्णन है। कहीं-कहीं ऐसी प्रथा है कि कोहबर में दुलहे दुलहिन के साथ सास तथा दूसरी स्त्रियाँ भी सोती हैं। अँगूठे से चोट लगने के कारण दुलहे का अफसोस करना उसकी वासनाजन्य विहुलता तथा सास के समक्ष उस अशिष्टता को छिपाने का बहाना मात्र है।
कथि के ऊ जे अगरे<ref>अगर; एक पेड़, जिसकी लकड़ी में सुगंध होती है</ref> चन्नन, सुनु केंदुली<ref>केदली; केला; टेक की पंक्ति</ref> बने।
कथिम लागल केबारी<ref>किवाड़</ref>, कि रुनुझुनु केंदुली बने॥1॥
सोने के ऊ जे अगर चन्नन, सुनु केंदुली बने।
रूपे लागल केबारी, कि रुनुझुनु केंदुली बने॥2॥
ओहि पैसी सूते गेला, दुलरा जमैया सुनु केंदुली बने।
पैंतने<ref>पायताने; बिछावन का वह भाग, जिधर पैर रहता है</ref> सुतल निज सास, कि सुनु केंदुली बने॥3॥
जौरे भै<ref>साथ होकर</ref> सूते गेला, सोहबी ठकुरैनिया सुनु केंदुली बने।
लागल अँगुठबा के चोट, रुनुझुनु केंदुली बने॥4॥
लागे देहो लागे देहो, अँगुठबा के चोट कि केंदुली बने।
आजु रे सोहाग के रात, कि रुनुझुनु केंदुली बने॥5॥
एक तो अरज हम, करैछी जमैया सुनु केंदुली बने।
धिया रे मलिन जनु होय, कि रुनुझुनु केंदुली बने॥6॥
आठहिं दस सासु कपड़ा धुलैबै, सुनु केंदुली बने।
नित उठि सोलहो सिंगार, कि रुनुझुनु केंदुली बने॥7॥