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कदमताल इस काल-चक्र पर / विमल राजस्थानी

जाने कितनी सुबहें होंगी
कितनी होंगी शाम
कटती-बँटती रही जिंदगी
होव्री रही तमाम

कदमताल इस काल-चक्र पर-
चढ़ कितना नाचूँगा
मूँदे नयन भाग्य-लिपि अपनी-
यों कब तक बाचूँगा
उस अदृश्य को साँस-साँस में मिले न कभी विराम
माला के मनकों पर पोरें थिरकें आठों याम
जाने कितनी..............

साँसों का पथ ऊबड़-खाबड़
जीवन भूल-भूलैया ही तो
अंतरिक्ष में डोर बँधी, जग-
नाचे ता-ता थैया ही तो
दिखते ‘‘हरा प्रकाश’’ भाग ले, लग जायेगा ‘जाम’
जाने कितनी..........