कपड़ा आरो सद्भावना / बिंदु कुमारी
गट्ठर दर गट्ठर कपड़ा
पानी मेॅ गीत गैतेॅ हुवेॅ
धोबी के टाँग दुखैं नै
दुखैं कै तेॅ खड़ा होय रोॅ मुद्रा मेॅ
थोड़ोॅ बदली करै छै
थकान रोॅ नाम नै
आपनोॅ मेहनत केॅ साधतेॅ हुवेॅ
भारतेॅ सुखैतेॅ रहै है, कपड़ा
सबरोॅ घरोॅ सेॅ जौरोॅ करलोॅ कपड़ा रंग-बिरंगा
नाहीं धोय केॅ होय जाय छै तरो-ताजा
फड़फड़ाय रहलोॅ छै बांस सेॅ बाँन्लोॅ रस्सी पर।
हवा रोॅ साथेॅ झूलते हुवेॅ
गाबी रहलोॅ छै सद्भावना रोॅ गीत
गल्ला-गल्ला मिलतेॅ हुवेॅ एक दोसरा सेॅ-
यहाँ कोय नै हिन्दु छै, नै कोय मुसलमान
नै कोय इसाई, आरो नै कोय सिख।
नै अमीर, नै गरीब
खाली प्रेम रोॅ सूतों छै
एक दोसरा सेॅ गुंथलोॅ होलोॅ।
ई धोबी आरो कपड़ा छेकै
हेकरोॅ रग-रग मेॅ पियार रोॅ दास्तान छै।
याहीं धुआवै छै मन रोॅ मैल।
आरो हारी जाय छै सांप्रदायिक उन्माद
हेकरोॅ पानी, साबून, सरफ आरो नील मेॅ
एकता रॉे ऊ तासीर छै
जेकरा सेॅ धुआय जाय छै-
घृणा बूँद-बूँद।
यहाँ सेॅ लौटैलेॅ नै चाहै छै कपड़ा।
कैहिनेॅ कि-काल किस घरोॅ मेॅ बँटी केॅ
कोय हिन्दु, कोय मुसलिम, कोय ईसाई, कोय सिख
कोय अमीर, कोय गरीब बनी जाय छै।