कबाड़ बीनते बच्चे / नीता पोरवाल
घना कोहरा ही होता है
मुफ़ीद वक्त
इन मासूमों को
अपने पेट की भूख का इन्तजाम करने के लिए
जब ठण्ड से सिकुड़े होते हैं मवेशी भी
और छिपे होते है हम गर्म रजाइयो में ,
आँख खोलते ही आ जाते हैं बोरे
इन नौनिहालों के कंधो पर
क्या सचमुच नहीं आता
इनके जीवन में एक भी ऐसा दिन
यह कह माँ की गोद में दुबक जाने का
“कि थोड़ा और सोने दो न माँ, आज बहुत सर्दी है”
कश्मकश में हूँ कि
क्या इनकी उंगलियाँ
हाड़ मांस की ही है?
ठीक हमारी उंगलियों की तरह
जो नहीं सुन्न होती
कडकडाती ठण्ड में भी?
सूती इकलौती कमीज़
और चप्पलो में भी
नहीं कटकटाते देखे कभी इनके दांत
यकीन करना ही होगा हमें
नहीं ये किसी अन्य ग्रह के जीव
हर सुबह ताकते हैं
पल भर के लिए धुंध भरा आसमान
और कर जाते हैं मासूमियत से प्रार्थना -
‘काश, और देर से उगे आज का भी सूरज...!’
{क्या वास्तव में इन नौनिहालों का सूरज कभी उदय नहीं होना?}