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कबाड़ / शरद कोकास
Kavita Kosh से
व्यवस्था की ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर
देश के नाम दौड़ने वालों के
घिसे हुए पुर्ज़े
मरम्मत के लायक नहीं रहे
मशीनी जिस्म के
ऊपरी खाने में रखा
मस्तिष्क का ढाँचा
मरे जानवर की तरह
सड़ांध देता हुआ
वैसे ही जैसे दाँतों और तालू को
लुभावने वादों के
निश्चित स्थान पर छूती
शब्दों के दोहराव में उलझी जीभ
और
पूजाघर के तैलीय वस्त्रों से
पुनरुत्थानवादी विचार
फटे पुराने बदबूदार
सड़क से गुज़रता है
आवाज़ देता हुआ कबाड़ी
पुराना देकर नया ले लो ।