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कब नहीं खूने जिगर छिड़का तिरे उनवान पर / ‘अना’ क़ासमी

कब नहीं ख़ूने जिगर छिड़का तिरे उनवान<ref>शीर्षक</ref> पर
हाथ रखकर तू ही कह दे मीर के दीवान<ref>ग़ज़ल संग्रह</ref> पर

फिर गया है आज पानी मेरे सब अरमान पर
देखकर उसकी इनायत अजनबी मेहमान पर

जिस्म ही क्या रूह में सरगोशियाँ तहलील हैं
लब रखे हैं जब से उसने अपने मेरे कान पर

सब ब्याजें<ref> कृतियां</ref> तौल दीं जिसने मिरी रद्दी के भाव
शायरी है मुनहसिर मेरी उसी नादान पर

अपनी ही आवाज़ से डर कर कभी ऐसा लगा
टूट कर जैसे गिरे बिजली किसी चट्टान पर

रोज़े-महशर<ref>प्रलय दिवस</ref> का तसव्वुर हो गया बाला-ए-ताक़<ref>आले पर</ref>
वो क़यामत ढाई है इन्सान ने इन्सान पर

आपकी भी बात निकली देर तक सोहबत<ref>सत्संग</ref> रही
चल पड़ा था तबसरा कल रात को शैतान पर

गोलियाँ चलने की आवाजे़ं बताती हैं ‘अना’
आ गयी है बात चलकर फिर किसी की आन पर



शब्दार्थ
<references/>