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कब फ़राग़त थी ग़म-ए-सुब्ह-ओ-मसा से मुझ को / मेला राम 'वफ़ा'

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कब फ़राग़त थी ग़म-ए-सुब्ह-ओ-मसा से मुझ को
रोज़ ओ शब काम रहा आह-ओ-बुका से मुझ को।

पास-ए-ख़ातिर से न दुश्मन के सितम कर मुझ पर
खेलना आता है ऐ दोस्त क़ज़ा से मुझ को।

हाए आलम शब-ए-फ़ुर्क़त मिरी मायूसी का
देती है मौत की उम्मीद दिलासे मुझ को।

था तिरी फ़ित्ना-ख़िरामी से अयाँ दिल का मआल
बू-ए-ख़ूँ आती है नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से मुझ को।

ऐ 'वफ़ा' मौसम-ए-वहशत भी है क्या मौसम-ए-गुल
क्यूँ बचाते हैं गुलिस्ताँ की हवा से मुझ को।