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कब मेरे दिल में कोई और ख़्याल आता है / सुरेश चन्द्र शौक़

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कब मेरे दिल में कोई और ख़्याल आता है

बस तसव्वुर में वही ज़ुहरा—जमाल आता है


दौलतो—शौकतो—शुहरत पे न कर इतना ग़ुरूर

भूलता क्यों है कि हर शय को ज़वाल आता है


जी में आता है कि हर राज़ को इफ़शा कर दूँ

फिर भी चुप हूँ कि मुझे तेरा ख़्याल आता है


दिल में सौ बार बदलते लेते हैं चेहरे अपने

चंद लोगों को तो ऐसा भी कमाल आता है


सच अगर पूछो तो मुँह देखे की बातें सब हैं

वरना ऐ ‘शौक़’ किसे किसका ख़्याल आता है.


ज़ुहरा—जमाल= शुक्र ग्रह की—सी सुरूपता रखने वाला; ज़वाल= पतन; इफ़शा=प्रकट