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कभी कभी / रमानाथ अवस्थी
Kavita Kosh से
कभी कभी जब मेरी तबियत
यों ही घबराने लगती है
तभी ज़िन्दगी मुझे न जाने
क्या-क्या समझाने लगती है
रात, रात भर को ही मिलती
दिन भी मिलता दिन भर को
कोई पूरी तरह न मिलता
रमानाथ लौटो घर को
घर भी बिन दीवारों वाला
जिसकी कोई राह नहीं
पहुँच सका तो पहुँचूँगा मैं
वैसे कुछ परवाह नहीं
मंज़िल के दीवाने मन पर
जब दुविधा छाने लगती है
तभी ज़िन्दगी मुझे न जाने
क्या-क्या समझाने लगती है
पूरी होने की उम्मीद में
रही सदा हर नींद अधूरी
तन चाहे जितना सुंदर हो
मरना तो उसकी मज़बूरी
मज़बूरी की मार सभी को
मज़बूरन सहनी पड़ती है