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कभी किसी बाग़ के किनारे / मुनीर नियाज़ी
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कभी किसी बाग़ के किनारे
उगे हुये पेड़ के सहारे
मुझे मिली हैं वो मस्त आँखें
जो दिल के पाताल में उतर कर
गये दिनों की गुफ़ा में झोंके
कभी किसी अजनबी नगर में
किसी अकेले उदास घर में
परीरुख़ों की हसीं सभायें
कोई बहार-ए-गुरेज़ पायें
कभी सर-ए-रह सर-ए-कू
कभी पस-ए-दर कभी लब-ए-जू
मुझे मिली हैं वही निगाहें
जो एक लम्हे की दोस्ती में
हज़ार बातों को कहना चाहें