भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कभी ग़ुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह / राना सहरी
Kavita Kosh से
कभी ग़ुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह
लोग मिलते हैं बदलते हुए मौसम की तरह
मेरे महबूब मेरे प्यार को इल्ज़ाम न दे
हिज्र में ईद मनाई है मोहर्रम की तरह
मैं ने ख़ुशबू की तरह तुझ को किया है महसूस
दिल ने छेड़ा है तेरी याद को शबनम की तरह
कैसे हम्दर्द हो तुम कैसी मसिहाई है
दिल पे नश्तर भी लगाते हो तो मरहम की तरह