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कभी जले अरमान कहीं / मल्लिका मुखर्जी
Kavita Kosh से
देखे मैंने हँसते-खिलते रंग कई, उत्पल में !
देखे मैंने बनते-मिटते रूप कई, बादल में !
कभी बूझ गई प्यास युगों की,
कभी जले अरमान कहीं ।
कभी कट गई मुश्किल राहें
कभी लगा आसान नहीं ।
देखे मैंने जलते-बुझते दीप कई, पल-पल में !
कभी मिल गए अंतर्यामी,
कभी दिखे शैतान कहीं ।
कभी चल दिए साथ हमारे,
कभी मिला संधान नहीं ।
देखे मैंने गिरते-धँसते लोग कई, दलदल में !
कभी कह दिया ख़ूब प्यार है,
कभी कहा पहचान नहीं ।
कभी बन गए इतने अपने,
कभी बने अन्जान कहीं ।
देखे मैंने चलते-फिरते साँप कई, जंगल में !