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कभी जो ख़ाक की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई / रफ़ी रज़ा
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कभी जो ख़ाक की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई
बहुत उड़ेगी वहाँ भी मिरी उड़ाई हुई
ख़ुदा का शुक्र-ए-सुख़न मुझ पे मेहरबान हुआ
बहुत दिनों से थी लुक्नत ज़बाँ में आई हुई
यह है ग़ज़्ज़-ए-बसर ये है देखना मेरा
रहेगी आँख तहय्युर में डबडबाई हुई
तुम्हारा मेरा तअल्लुक़ है जो रहे सो रहे
तुम्हारे हिज्र ने क्यूँ टाँग है अड़ाई हुई
पकड़ लिया गया जैसे कि मैं लगाता हूँ
बुझा रहा था किसी और की लगाई हुई
लहू लहू हुआ सज्दे में दिल अगरचे ‘रज़ा’
शब-ए-शिकस्त बड़े जोर की लड़ाई हुई