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कभी धरना, कभी घेराव, कभी हड़ताल / सांवर दइया

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कभी धरना, कभी घेराव, कभी हड़ताल।
हर रोज लगा है यहां एक नया बवाल!

चारों तरफ़ हो रहे धमाकों पर धमाके,
इस नन्हीं चिड़िया को ज़रा जतन से संभाल।

मेला उठने से पहले भागदौड़ होगी,
संभालकर रख, कहीं गिर न जाए रूमाल।

समझने-समझाने का है यह रूप नया,
लाठी-पत्थर से आ-जा रहे जवाब-सवाल।

खून-खराबा आदमी के हक़ों के लिए,
यहां हो रहा आदमी का कितना ख़याल!