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कभी पहाड़ का रोना सुना गया ही नहीं / अभिषेक कुमार सिंह

कभी पहाड़ का रोना सुना गया ही नहीं
किसी के पास हुनर ऐसा कोई था ही नहीं

तमाम कोशिशें नाकामियों की भेंट चढ़ीं
चमकती रेत के टीले से घर बना ही नहीं

हमारे ख़्वाब के जंगल तो जल गए लेकिन
दहकती आग से कोई धुआँ उठा ही नहीं

सहारा नाव का लेना ही पड़ा आख़िर में
नदी ने राहियों को रास्ता दिया ही नहीं

न जाने कौन से कस्बे में आ गये हैं हम
गलत क़दम पर कोई हमको टोकता ही नहीं

बना के घास की रोटी भी पेट भर लें पर
जलाने को यहाँ चूल्हे में कोयला ही नहीं

किसे मैं दोष दूँ अब और इस ज़माने में
जो मेरे साथ था मेरा कभी हुआ ही नहीं