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कभी यूँ है कि तुमसे दूर जाकर क्या करें प्यारे / कांतिमोहन 'सोज़'

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कभी यूँ है कि तुमसे दूर जाकर क्या करें प्यारे ।
कभी यूँ है तुम्हारे पास आकर क्या करें प्यारे ।।

चमन में ऐसा मौसम है कि गुल खिलने से डरते हैं
तुम्हारे नाम पर कुछ गुल खिलाकर क्या करें प्यारे ।

चलो अब होश की मानें उठा दो साग़रो-मीना
मगर अब होश में आएँ तो आकर क्या करें प्यारे ।

ग़रज़ ये है कि इस जी का ज़ियां यूँ भी है और यूँ भी
तो इसको लाख पर्दों में छुपाकर क्या करें प्यारे ।

रक़ीबों की फ़ज़ीहत देखकर दिल बैठ जाता है
तुम्हें हम हाले-दिल अपना सुनाकर क्या करें प्यारे ।

कभी यूँ है कि इस काशाने को मिस्मार कर डालें
तुम्हारी मोहिनी मूरत सजाकर क्या करें प्यारे ।

तुम्हारे सोज़ के सर की नहीं क़ीमत कहीं कुछ भी
तुम्हारे आस्तां पर आज़माकर क्या करें प्यारे ।।