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कभी रसाई-ए-आह-जिगर नहीं होती / वज़ीर अली 'सबा' लखनवी

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कभी रसाई-ए-आह-जिगर नहीं होती
हमारे दिल की उन्हें कुछ ख़बर नहीं होती

पा-ए-तसल्ली-ए-दिल दे दिया है ख़त तुझ को
रिसाई यार तक ऐ नाबा-बर नहीं होती

दराज़ी-ए-शब-ए-तार-ए-लहद मआज़ अल्लाह
बग़ैर-ए-सुब्ह-ए-क़यामत सहर नहीं होती

अजब नहीं मेरे रोने पर आप का हँसना
किसी के दिल की किसी को ख़बर नहीं होती

ख़िलाफ-ए-ख़ल्क़ से ख़िल्क़ात है इन हसीनों की
‘सबा’ दहन नहीं होता कमर नहीं होती