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कभी लोरी, कभी कजली, कभी निर्गुन सुनाती है, / राजेन्द्र वर्मा

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कभी लोरी, कभी कजली, कभी निर्गुन सुनाती है,
कभी एकान्त में होती है माँ तो गुनगुनाती है ।
 
भले ही ख़ूबसूरत हो नहीं बेटा, पर उसकी माँ
बुरी नज़रों से बचने को उसे टीका लगाती है ।
 
कोई सीखे, तो सीखे माँ से बच्चा पालने का गुर,
कभी नखरे उठाती है, कभी चाँटा लगाती है ।
 
ये माँ ही है जो रह जाती है बस दो टूक रोटी पर,
मगर बच्चों को अपने पेट-भर रोटी खिलाती है ।

गया बेटा कमाने को, मगर लौटा नहीं अब तक,
रहे राजी-ख़ुशी से वो, यही हर दिन मनाती है ।

कभी उलझे हुए बालों को सुलझाने अगर बैठी,
शरारत से भरी मुस्कान उनकी याद आती है ।
  
रहे जब से नहीं पापा, हुई माँ नौकरानी-सी,
सभी की आँख से बचकर वो चुप आँसू बहाती है ।