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कभी लौ का इधर जाना, कभी लौ का उधर जाना / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
कभी लौ का इधर जाना, कभी लौ का उधर जाना
दिये का खेल है तूफ़ान से अक्सर गुज़र जाना।
जिसे दिल मान ले सुंदर वही सबसे अधिक सुंदर
उसी सूरत पे फिर जीना, उसी सूरत पे मर जाना।
खिले हैं फूल लाखों, पर कोई तुझ सा नहीं देखा
तेरा गुलशन में आ जाना बहारों का निखर जाना।
मिलें नज़रें कभी उनसे क़यामत हो गयी समझो
रुके घड़कन दिखे लम्हों में सदियों का गुज़र जाना।
किया कुछ भी नहीं था बस ज़रा घूँघट उठाया था
अभी तक याद है मुझको तुम्हारा वो सिहर जाना।