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कभी शाख़-ओ-सब्ज़-ओ-बर्ग पर / जिगर मुरादाबादी


कभी शाख़-ओ-सब्ज़-ओ-बर्ग पर कभी ग़ुँचा-ओ-गुल-ओ-ख़ार पर
मैं चमन में चाहे जहाँ रहूँ मेरा हक़ है फ़सल-ए-बहार पर
मुझे दे न ग़ैब में धमकियाँ गिरे लाख बार ये बिजलियाँ
मेरी सर-तलक यही आशियाँ मेरी मिल्कीयत यही प्यार है
मेरी सिम्त से उसे ऐ सबा ये पयाम-ए-आख़िर-ए-ग़म सुना
अभी देखना हो तो देख जा के ख़िज़ाँ है अपनी बहार पे
ये फ़रेब-ए-जल्वा-ए-सर-बसर मुझे डर है ये दिल-ए-बेख़बर
कहीं जम न जाये तेरी नज़र इन्हीं चंद नक़्श-ओ-निगार पर
अजब इंक़लाब-ए-ज़माना है मेरा मुख़्तसर सा फ़साना है
ये जो आज बार है दोश पर यही सर था ज़ानो-ए-यार पर
मैं रहीन-ए-दर्द सही मगर मुझे और क्या चाहिये "ज़िगर"
ग़म-ए-यार है मेरा शेफ़ता मैं फ़रेफ़ता ग़म-ए-यार पर