कमरऊ के पहाड़ का अन्तिम बयान / कुमार कृष्ण
अपने लिए पक्का मकान
एक खूबसूरत गाड़ी खरीदने के लिए
जिस दिन तुमने गिरवी रख दिया मुझे
इन्द्रप्रस्थ के पास
मैं चुप रहा
एक बार भी नहीं सोचा तुमने
मेरी तकलीफ़ मेरे सपनों के बारे में
मैं था छोटी-छोटी नदियों का पिता
तुम्हारे तमाम लोकदेवताओं का प्रहरी
घास काटती औरतों का राग
लक्कड़हारों की छाँव
मनुष्यों की, मवेशियों की रोटी
इस पृथ्वी का सिरमौर
धरती की खूबसूरत पगड़ी
मैं नहीं था केवल पहाड़
मैं था तुम्हारे पूर्वजों का हौसला
उनकी हिम्मत, उनकी उम्मीद
उनकी प्यास, उनकी आस
मैं था हरी पगड़ी वाला सिपाही
मैंने पैदा किए तुम्हारे भीतर कई-कई पहाड़
पहाड़ बनने में लगे थे मुझे हजारों साल
इन्द्रप्रस्थ के बारूद ने
एक झटके में ख़त्म कर दी
मेरी सदियों पुरानी ठसक
मैं हूँ अब रेहन रखी हुई आवाज़
हवा में उड़ती धूल
गिरवी रखी चीज आखिर
हेकड़ी के बिना जीती है
उसका नहीं होता कोई दर्प, दंभ और दाप
वह तो जीती है उम्र भर मरे हुए सपनों के साथ
अपने पक्के घर की खातिर
तुमने बेच डाला मेरा स्वाभिमान
मेरी अस्मिता, मेरी ठसक
तुमने बेच डाला अपने देवताओं का विश्वास
बेच डाली पुरखों की विरासत
मेरे रोने पर मेरे साथ रोई तो बस अकेली किंकरी देवी
अब मैं चुप नहीं रह सकता
इससे पहले कि वे ख़त्म कर दें पूरी तरह
मेरा वजूद
मुझे रचना होगा एक प्रलय-राग
गुनगुनाना होगा अपनी नदियों के लिए
अंतिम विदाई-गीत
करनी होगी प्रार्थना उन तमाम बच्चों के लिए
जो गा रहे हैं आज भी
एक पुराना पर्वत-गीत।