कमरा : आदमक़द आईना और नंगापन / शलभ श्रीराम सिंह
जो कहता है :
हवा में छलाँग भरूँ
और लपककर चन्द्रमा को दबोच लूँ !
और किसी स्याह समुद्र को छत में ले जाकर
उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालूँ !
और धड़कनों की उम्मीद पर
ज़िन्दा टुकड़ों को
पैरों से कुचलता रहूँ !
और आख़िर में घृणा से ऊबकर थूक दूँ !
फिर
किसी मछली को
गोद में लेकर
ऊपर उठूँ !
ऊपर : जहाँ पहाड़ियों से घिरा
’मेरा’ छोटा सा कमरा हो !
कमरा : जो सिर्फ़ लाइब्रेरी हो !
और एक आदमक़द आईना ...!
आईना : जिसमें मैं स्वयं को नंगा देख सकूँ !
नंगापन : जो मेरा हो !
मेरे जैसे दुनिया के उन तमाम लोगों का हो
जिन्होंने कुछ सही सोचने के लिए
ज़िन्दगी भर सरायबाज़ी की है !
सर्दी में बीवी को ठिठुरते
और बच्चों को मरते देखा है !
दोस्तों की मेहरबानी का बोझ
न सम्हाल पाने के कारण
आत्महत्या तक करने का निश्चय किया है !
(एंजिल और अशोक से क्षमानिवेदन सहित)
जिन्होंने एक कप चाय के ऊपर
पहरों उपदेशनुमा बकवासें सुनी हैं
और शाम को
उदास मन
ख़ाली हाथ
थके पाँव
घर लौट आए हैं !
1964