भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कमरे में कबूतर / उमेश पंत
Kavita Kosh से
मेरे कमरे में कबूतर आया
अच्छा लगा कि
कोई तो है साथ मेरे
बहुत देर से बैठा-सा वो
कुछ सोच रहा था
जो सोच रहा था
मुझे मालूम नहीं
मैने देखा उसे नज़र भर के
सोचा चलो कुछ बात करूँ
जैसे ही उठा
और कुछ बोला
वो उड़ गया खिड़की से लपकता
पलक झपकते ही
बाहर गर्मी है
वो लौट कर आएगा ज़रूर
उसकी फ़ितरत भी है
इन्सानों-सी
मुझको लगता था कि
कोई तो अलहदा है यहाँ ।
अच्छा हुआ इस बार
परिंदे ने नसीहत दे दी ।