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कमला नदी पर एकटा रेलवे पुल: 1950 / राजकमल चौधरी
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दिवानाथक तर्जनीमे विवाहक पैघ औँठी, पोखराजक;
चमकि रहल अछि
पुलसँ पयर लटकाक’, बजा रहल छथि बाँसुरी,
आँखि मुनने छथि नागदत्त...आ,
वायु संगे झहरैत अछि मारुक विहागक एकटा
कोमल स्वर।
रमाकान्त सुनबैत छथि, कोनो अंग्रेजी उपन्यासक कथा,
जाहिमे एकटा पत्नी, बताहि
अपन स्वामीक हत्या करैत अछि।
मन्त्रनाथ चुप्प छथि, उग्रानन्द छथि उदास...
हम अपने एहि परिवेशक आत्म व्यथाकेँ
एक सूत्रमे जोड़ि रहल छी।
कमलाक अधसुखायल धारमे उगल अछि असंख्य,
भेँट-कुमुदिनीक फूल।
आ, हम सभ कालेजक अवकाशमे अपन गाम
घुरल लोक,
पानिमे चकमक करैत तारावलिक संग
अपन-अपन स्वप्न, आ अपन कवितामे
जीवि रहल छी-एक स्वर!
(मिथिला मिहिर: 10.10.65)