कमाल की औरतें २४ / शैलजा पाठक
जब भाई घर की छत से कागज़ के हवाईजहाज बनाता
हम आंगन के परात भर पानी में कागज़ की नाव बहाते
जो हर कोने से टकरा कर भी सधी हुई सी चलती
जब भाई नई मिली साइकिल पर कैंची मारता हुआ
रास्ते पर आगे बढ़ जाता
हम मुस्कराते
अक्सर खड़ी हुई साइकिल के पीछे बैठ
हम गीतों के देश की सैर करते फिर उतर जाते
वो पतंग उड़ाता हम मंझा सुलझाते
फटी पतंग को दुरुस्त करते
भाई फिर उड़ जाता
भाई पिता का जूता पहन कमाने जाता
हम अम्मा की साड़ी में घर संभालते
हमारे पास रसोई वाला खेल उसके पास डॉक्टर सेट
हमारी कपड़े की गुडिय़ा उसकी बैटरी वाली मोटर
कमोबेश जि़दगी का सबक सीखती सिखाती उम्र
एक लड़की थी बुआ
जिनसे परात भर पानी
और साइकिल वाली यात्रा भी छीन ली गई
अब बस बड़ी सी साड़ी लपेट बुआ मंझे सुलझाती हैं...।