राग-कान्हरौ
करत कान्ह ब्रज-घरनि अचगरी ।
खीजति महरि कान्ह सौं, पुनि-पुनि उरहन लै आवति हैं सगरी ॥
बड़े बाप के पूत कहावत, हम वै बास बसत इक बगरी ।
नंदहु तैं ये बड़े कहैहैं, फेरि बसैहैं यह ब्रज-नगरी ॥
जननी कैं खीझत हरि रोए, झूठहि मोहि लगावति धगरी ।
सूर स्याम-मुख पोंछि जसोदा, कहति सबै जुवती हैं लँगरी ॥
भावार्थ :-- कन्हाई व्रज के घरों में ऊधम करते हैं, इससे व्रजरानी कृष्णचन्द्र पर खीझ रही है - `ये सभी बार-बार उलाहना लेकर आती हैं, तुम बड़े (सम्मानित)पिता के पुत्र कहलाते हो, हम और वे गोपियाँ एक स्थान में ही निवास करती हैं (उनसे रोज-रोज कहाँ तक झगड़ा किया जा सकता है)। इधर ये (मेरे सुपुत्र) ऐसे हो गये हैं मानो व्रजराज नन्द जी से भी बड़े कहलायेंगे और ( सबको उजाड़कर) व्रज की नगरी ये फिर से बसायेंगे ।' माता के डाँटने पर श्यामसुन्दर रो पड़े (और बोले-) `ये कुलक्षणियाँ मुझे झूठा ही दोष लगाती हैं ।' सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा जी ने श्याम का मुख पोंछा (और पुचकारकर) कहने लगीं - (लाल) रो मत । `ये सब युवती गोपियाँ हैं ही झगड़ालू ।'