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करवट बदल-बदल के ही आँखों में ही सही / गौतम राजरिशी

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करवट बदल-बदल के ही, आँखों में ही सही
कमबख़्त रात ये भी गुज़र जाएगी सही

उट्ठी हैं हिचकियाँ जो बिना बात यक-ब-यक
अच्छा लगा कि सोचे है मुझको कोई सही

ऊँगली छुई थी चाय का कप थामते हुये
दिल तो गया ही, जान भी निकली रही-सही

तौहीन बादलों की ज़रा हो गई तो क्या
निकला तो आफ़ताब दिनों बाद ही सही

छूटी गली जो तेरी तो अफ़सोस क्या करें
रास आ रही है क़दमों को आवारगी सही

हर बार कैसे सीटी बजाऊँ, तुम्हीं कहो
आओ भी बालकोनी में ख़ुद से कभी सही

भूल आपको गये, न किया फोन हमने गर ?
‘अच्छा ये आप समझे हैं ! अच्छा यही सही’

तारें उदास बैठे हैं अम्बर की गोद में
अब आ भी जा ऐ चाँद ! कि हो चाँदनी सही

आई अभी तलक न वो, ऐ यार क्या करूँ
सिगरेट ही पिला दे ज़रा अधफुकी सही !

सब कुछ सही, इस उम्र का अंदाज़ ऐसा है
वहशत सही, जुनूँ सही, दीवानगी सही



(अभिनव प्रयास, अक्टूबर-दिसम्बर 2015)