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कराहते हुए इनसान की सदा हम हैं / हबीब जालिब

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कराहते हुए इनसान की सदा हम हैं
मैं सोचता हूँ मिरी जान और क्या हम हैं

जो आज तक नहीं पहुँची ख़ुदा के कानों तक
सर-ए-दयार-ए-सितम आह-ए-ना-रसा हम हैं

तबाहियों को मुक़द्दर समझ के हैं ख़ामोश
हमारा ग़म न करो दर्द-ए-ला-दवा हम हैं

कहाँ निगह से गुज़रते हैं दुख भरे दिहात
हसीन शहरों के ही ग़म में मुब्तला हम हैं